
श्रीकृष्ण जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष बाबा दिनेश फलाहारी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को एक पत्र भेजकर आग्रह किया है कि इस वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर ठाकुर जी की पोशाकें केवल सनातनी हिंदू कारीगरों से ही खरीदी जाएं।
उनका तर्क?
“कुछ कारीगर धार्मिक परंपराओं को नहीं समझते और स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते।”
बाबा जी यहीं नहीं रुके — उन्होंने यह भी मांग की कि नंद उत्सव और भोग-पूजा मूल गर्भगृह में होनी चाहिए, ताकि श्रद्धालु ठाकुर जी को माखन-मिश्री अर्पित कर सकें।
संत समाज भी समर्थन में… पर सामाजिक प्रश्न अनुत्तरित
महंत अभीदास जी, रासबिहारी जी महाराज, आचार्य सुमित कृष्ण, स्वामी अतुलकृष्ण दास जी, और अनिल शास्त्री जी जैसे संतों ने इस मांग का समर्थन किया। वे कहते हैं – “ठाकुर जी को उनके ही मंदिर के गर्भगृह में भोग न चढ़ा पाना सनातनी समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।”
परंतु क्या इस धार्मिक आग्रह के पीछे सांप्रदायिक विभाजन की चिंगारी नहीं छुपी?
“पोशाक पवित्र होनी चाहिए, इंसान नहीं?”
जब बाल गोपाल की पोशाक बनाने वाले कारीगर की जाति या धर्म मायने रखने लगे, तो असल में हम श्रीकृष्ण के उस सार्वभौमिक प्रेम के दर्शन को ही खो देते हैं। श्रीकृष्ण ने विदुर के घर खिचड़ी खाई और पूतना को भी मुक्ति दे दी।
तो फिर ठाकुर जी की पोशाक पर धर्म की बंदिश क्यों?
क्या इस देश में गरीब मुस्लिम कारीगरों के हुनर पर भी अब धार्मिक पहचान की मोहर लगेगी?
क्या विवाद की आग में गरीब ही जलेगा?
जिस वक्त कारीगर — चाहे हिंदू हो या मुसलमान — अपने घर में चूल्हा जलाने के लिए काम की तलाश में है, उसी वक्त यह शर्त लगाना कि “सिर्फ सनातनी बनाएं पोशाकें”, क्या ये एक तरह की रोज़गार छीनने वाली साजिश नहीं है?

क्या मज़दूरी करने वाला कारीगर इतना भी अपवित्र हो गया कि ठाकुर जी की सेवा में अयोग्य ठहराया जाए?
बाबा का संकल्प: मंदिर स्वतंत्र नहीं तो अन्न नहीं
बाबा दिनेश फलाहारी ने यह भी कहा कि जब तक श्रीकृष्ण जन्मभूमि पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हो जाती, वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे, न ही चप्पल पहनेंगे।
उनका तप निश्चित रूप से प्रशंसनीय है, पर सवाल यह है कि क्या “तप” के नाम पर सामाजिक सौहार्द को तोड़ने की इजाज़त मिल जाती है?
क्या पहले ही हिंदू-मुस्लिम के बीच कम दूरियाँ हैं, जो अब पोशाकों में भी धर्म ढूंढ़ा जा रहा है?
जब धर्म का कपड़ा शरीर को ढंकने की बजाय समाज को चीरने लगे, तो हमें रुककर विचार करना चाहिए।
कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व प्रेम, मिलन, और आत्मसमर्पण का प्रतीक है। अगर इसी दिन को धार्मिक बंटवारे की मिसाल बना दिया जाए, तो यह कृष्ण के नाम पर राजनीति करने जैसा होगा — और उनके प्रेम के संदेश का अपमान।
इस देश को ज़रूरत है कर्म और करुणा के कृष्ण की, न कि कूपमंडूक मानसिकता के।
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